Physics in Ancient India
 मुख्य पृष्ठ
 प्राक्कथन
 स्थिति स्थापकता संस्कार
 तेज : ऊर्जा
 वायु विमर्श
 गुरुत्व विमर्श
 भारतीय दर्शन और भौतिक विज्ञान
 दिक् परिमेय
 पार्थिव परिमेय
 कर्म
 वेग
 गुण
 गणितीय समीकरण
 प्राचीन भारत में वर्ण मापन
 द्रव्य
 अप् विमर्श
 पदार्थ
 भौतिक विज्ञान की गवेषणा
 काल परिमेयत्व
 'शब्द' : तरंग वृत्ति
 लेखक परिचय
भौतिक विज्ञान की गवेषणा


भूमिका
सम्भवत: ही कोई विवाद हो।
भारत में वेद, दर्शन की विभिन्न विधाओं एवं आत्मज्ञान से सम्बद्ध विद्वत्तापूर्ण रचनाओं का प्राचीन काल से अधुनातन् किया जा रहा गहन अध्ययन लगभग सम्पूर्णता की ओर है। परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भौतिक संसार से सम्बन्धित विषयों यथा-ज्योतिष (Astronomy) औषधि (Medicine), रसायन (Chemistry), अभियांत्रिकी (Engineering), इत्यादि विषयों को पूर्णत: विकसित करने में अपेक्षित न्याय नहीं किया जा सका है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वैशेषिक दर्शन (कणाद दर्शन) जिसे भौतिक विज्ञान के समतुल्य माना जा सकता है, के प्रायोगिक अध्ययन का विकास बाल्यावस्था में ही बाधित हो गया था। संग्रहार्थ यह है कि इस दर्शन के सुस्थापित सिद्धान्त, जो प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं, उनका भाष्यों, व्याख्याओं, टीकाओं एवं टिप्पणियों के द्वारा यथावत् निदर्शन प्राप्त होता है, तथापि विगत २,००० वर्षों से इनका गणित एवं कार्य-कारण (प्रभाव) पर आधारित उपयुक्त प्रायोगिक उपकरणों की सहायता लेकर पोषण नहीं किया गया। सम्भवत: इन्ही हेतु उपकरणों की सहायता लेकर पोषण नहीं किया गया।
सम्भवत: इसी हेतु मराठी ज्ञान कोषकार डॉ. केतकर महोदय 1 नें विज्ञानेतिहास को समर्पित पञ्चम-खण्ड में 'पदार्थ विज्ञान इतिहास' नामक अध्याय के आरम्भ में ही स्वीकार किया है कि प्राचीन भारत में भौतिक-विज्ञान के क्षेत्र में जो विकास एवं अभ्युन्नति हुई थी, उसकी सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध न होने के कारण प्रकृत प्रसंग में निर्दिष्ट नहीं किया गया है। लेखक ने इसे भारतीय भौतिक विज्ञान का एक अलिखित पृष्ठ माना है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत पुस्तक (सी०डी०), जो लेखक के अपने पूर्व अध्ययन पर आधारित है, संस्कृत साहित्य में, विशेषकर वैशेषिक दर्शन एवं महर्षि भरद्वाज की 'अंशु बोधिनी'' में, वैज्ञानिक और गाणितीय पद्धतियों का प्रयोग करके भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अघ्ययन करने, और अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान-सामग्री का संग्रहण करके अनुसंधित्सु पाठकों को अवगत कराने का एक प्रयास है।
वैशेषिक दर्शन और भौतिक विज्ञान की प्रकृति (The Nature of Vaisesika and Physics)
भौतिकी और वैशेषिक दर्शन दोनों ही समान प्रकृति के हैं, 2 एक समुच्चय है।
सामान्यत: आधुनिक विज्ञान का स्वीकृत उद्देश्य चरम कारण को उपस्थित करना न होकर केवल आसन्न कारणों का परीक्षण करना ही है। किन्तु वैशेषिक दर्शन की व्याख्या-प्रकृति 'आत्मा' और 'मन' को भी भौतिकी के पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) जैसे तत्वों के रूप में समझने की ओर भी है जिसे आधुनिक मनोविज्ञान (Experimental Psychology) के रूप में प्रतिष्ठित की जा सकती है।
वैशेषिक दर्शन का भौतिक (Physical) एवम् आधिभौतिक (Metaphysical) रूप:
वैशेषिक की दृष्टि में समस्त विश्व पदार्थमय है। 3
'पदार्थ' शब्द 'पद' तथा 'अर्थ' के संयोग से निष्पन्न होता है, अर्थात् कोई भी 'पद' जिसका कुछ 'अर्थ' होता है, वह 'पदार्थ' संज्ञक है। वैशेषिकों का उपर्युक्त 'पदार्थ' शब्द भौतिक विज्ञान के पारिभाषिक शब्द 'भौतिक राशि' (Physical Quantity) के तुल्य में, उनके चरम अविभाज्य खण्डों को जानकर 'विशेष' (partlessness) के रूप में, उनके समन्वय की श्रेणी के आधार पर 'समवाय' (Concomitance) के रूप में, और कभी-कभी 'अभाव' (Absence) के माध्यम से श्रेणीबद्ध किया जाता है। ये चारों पदार्थ अर्थात् सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव तार्किक (Logical) भौतिक राशियाँ हैं जो समस्त सत्ता जातीय पदार्थों को पृथक् करती है। ये आधारभूत भौतिक राशियाँ हैं जो समस्त सत्ता जातीय पदार्थों को पृथक् करती हैं।
इनको आधारभूत भौतिक राशियों 'द्रव्य' (Physical Quantity), उनके 'गुण' (Property) एवम् 'कर्म' (Motion) के रूप में समूहबद्ध किया गया है। इन चार तार्किक राशियों को अभिव्यक्त करने हेतु प्रकृत ग्रंथ में गणितीय समीकरण पद्धति को अपनाया गया है, क्योंकि इस पद्धति के बिना इन पदार्थों की अभिव्यक्ति गुणात्मक (Qualitative) ही रह जाती है। गणित का प्रयोग न केवल विस्तृत शब्दजाल को कम करता है, अपितु मानात्मक (Quantitative) तथ्यों को भी स्पष्ट करता है। प्रस्तुत अध्ययन में 'आत्मा' एवं 'मन' और तत्सम्बद्ध पदार्थों के अतिरिक्त अन्य समस्त पदार्थों का विवेचन उपर्युक्त पद्धति से किया गया है, जो आश्चर्यजनक पद्धति से अक्षपाद के वैशेषिक दर्शन को भौतिकी अधिकारी अथवा आकर ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
वैशेषिक दर्शन - भौतिक विज्ञान का नूतन क्षितिज
Vaisesika - The New Horizon of Physics
कणाद महर्षि ने भौतिक राशियों के विज्ञान के रूप में वैशेषिक दर्शन के प्रथमाहिनक के चतुर्थसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा है कि 'चरम-ज्ञान' अथवा तत्व-ज्ञान भौतिक आधारभूत राशियों द्रव्य ;पृथ्वी, जल, तेज आदिद्ध,गुण;रूप, रस, गंध आदिद्ध, कर्म; उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन आदिद्ध,सामान्य, विशेष एवं समवाय के विवेचन से अर्थात् इनके क्रमबद्ध ज्ञान से हो सकता है। 4
प्रकृत प्रसङ्ग में यह ज्ञातव्य है कि द्रव्य अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन इन नौ पदार्थों में 'आत्मा' और 'मन' जैसे आधि-भौतिक पदार्थों का ज्ञान भी भौतिक राशियों के ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है, ऐसी इस दर्शन की स्वतन्त्र किन्तु वैज्ञानिक मान्यता है। यद्यपि वैशेषिक-दर्शन अन्यान्य दर्शनों के समान ही 'मोक्ष' (Salvation) को अन्तिम लक्ष्य निर्धारित करता है, तथापि 'आत्म-ज्ञान' (Knowledge of self) की प्राप्त हेतु भौतिक राशियों के सम्यक्-क्रमबद्ध ज्ञान की आवश्यकता को स्वीकार करना इस दर्शन की विशेषता है। मेरा यह विश्वास है कि विवेचित व्याख्यायित किया जाय तो यह शास्त्र अत्यन्त आधुनिक एवं विकसित समझे जाने वाले पाश्चात्य विज्ञान से उन्नत स्थान पर स्थापित हो सकेगा। क्योंकि यह आत्मा और मन (Self and attention) जैसे आधिभौतिक द्रव्यों के अनुत्तरित रहस्यों का प्रकाशन भी करता है।
गणित वैशेषिकम् (वैशेषिक दर्शन का गणितीय रूपान्तरण): भौतिक विज्ञान (The Mathematical Interpretation of Vaisesika : Physics)
प्रस्तुत पुस्तक में वैशेषिक दर्शन के आत्मा और मन से सम्बद्ध विचारों के अतिरिक्त अन्य समस्त पदार्थों-तत्वों की गणितीय मीमांसा की गई है। जहाँ तक परिभाषाओं और उनके विशिष्ट अर्थों के सम्मेलन का प्रश्न है, भौतिक विज्ञान और वैशेषिक दोनों ही परस्पर समानार्थक हैं। अन्तर केवल इतना है कि वैशेषिक दर्शन स्वत: सिद्धान्तों को गणितीय रूप में अभिव्यक्त नहीं करता और इसी हेतु यह आधुनिक भौतिक विज्ञान की परिखा से बहिष्कृत समझा जाता रहा है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि महर्षि कणाद के वैशेषिक सिद्धान्तों को (जो उसकी प्रकृति है) गणितीय पद्धति से अभिव्यक्त किया जाय, जिससे यह स्थापित हो सके कि यह दर्शन भौतिक दर्शन से भिन्न नहीं है, और साथ ही साथ विश्व का प्रथम भौतिकी है।
इस सन्दर्भ में न्यायसूत्र के भाष्यकार 'वात्स्यायन' के भाष्य-टिप्पणी अवलोकनीय है। 5
यह वैशेषिक दर्शन में उल्लिखित ''भूत'' सम्बन्धी समस्त भौतिक राशियों (आत्मा और मन के बिना) का विवेचन किया गया है इस टिप्पणी के साथ कि इस पद्धति से आत्मा और मन सम्बन्धी राशियों को मनोविज्ञान और जीवविज्ञान की परिधि में समाविष्ट करके क्रमबद्ध विवेचित किया जा सकता है।
वैशेषिक के अनुसार 'पदार्थ' (भौतिक राशि) दो प्रकार के हैं। प्रथम 'सत्ता जातीय' (वास्तविक अस्तित्व युक्त) और द्वितीय 'न्यायशास्त्रीय' (तार्किक अस्तित्व युक्त)। यह विभाजन भौतिक राशियों के 'आधाराधेय सम्बन्ध' (Dependent and Independent Character) पर निर्भर करता है। वास्तविक अस्तित्व वाली भौतिक राशियों द्रव्य, गुण और कर्म सत्ता जातीय हैं तथा तर्क प्रधान (न्याय-शास्त्रीय) राशियाँ हैं- सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव एक साथ गणितीय समीकरण के माध्यम से प्रकट किये जाते हैं और द्रव्य (मूलभूत भौतिक राशि Fundamental Physical Quantity), गुण (Properties) और कर्म (Motion) आधारभूत भौतिक राशियाँ हैं।
प्राचीन भारत में दर्शन के उदय और विकास के समय आवश्यक विज्ञान एवं गणितशास्त्र का ज्ञान उपलब्ध था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी अर्वाचीन दार्शनिक ने उस देश-काल और परिस्थिति में भौतिक संसार से सम्बद्ध विचारों को बीजगणितीय पदों में अभिव्यक्त करने का प्रयास नहीं किया। प्रस्तुत प्रयत्न यदि पूर्वाचार्यों ने किया होता तो, वह ज्ञान जो पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने विगत तीन शताब्दियों में अर्जित किया है, लगभग १५०० वर्ष पूर्व ही जनमानस को समर्पित किया जा सकता था।
ज्योतिष: अंतरिक्षीय पिण्डों का भौतिकी (Astronomy: The Physics of Celestial Bodies)
प्राचीन भारत में ज्योतिष शास्त्र का अस्तित्व गणितशास्त्र के सुस्थापित होने में सबल प्रमाण है, जो ग्रहों के कर्म (Motion) इत्यादि का निरूपण करता है। तत् देश-काल में ज्ञात भौतिक राशियों के ज्ञान का उपयोग ज्योतिषाचार्यों ने उपयोग किया था। उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है कि-ज्योतिषाचार्यों ने सृष्टि के सम्पूर्ण काल की गणना इस भूमिका पर की थी, प्रलय के पश्चात् सृष्टि के आविर्भाव के समय पुन: अंतरिक्षीय पिण्डों की स्थिति तत् तत् स्थानों पर ही समझी जायेगी, और इस चक्र की अवधि 'सृष्टि-प्रलय' का काल (समय) होगा। इसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त के अध्याय 'ज्योतिषोपनिषद्' और ज्योतिष के अन्य आकर ग्रंथों में उपलब्ध प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक कार्य भारतीय चिन्तन की आत्मनिर्भरता को परिलक्षित करता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
अत: यह कहा जा सकता है कि 'ज्योतिष' एक ऐसा विज्ञान है जो पूर्णत: दार्शनिक चिन्तन और गणित पर निर्भर है। जैसे हम प्रयोगशाला में छोटे-छोटे पिण्डों को लेकर उनसे सम्बन्धित कर्म (Motion), संस्कार (Force) इत्यादि का सामान्य अध्ययन कर सकते हैं, जैसा कि भौतिकी में किया जाता है, तथैव ज्योतिष भी बड़े पैमाने पर दीर्घाकार पिण्डों जैसे सूर्य, चन्द्र आदि का प्राकृतिक प्रयोगशाला में किये गये अध्ययन से सम्बन्ध रखता है। वस्तुत: ज्योतिष एक प्रायोगिक विज्ञान है, जिसका भौतिकी के दर्शनशास्त्र और गणितशास्त्र से अन्योन्य सम्बन्ध है, अथवा स्थूल रूप से भौतिकी दर्शनशास्त्र और गणितशास्त्र से उद्भूत हुआ है।
अन्त में आशा है कि भारतीय संस्कृति का उन्नायक प्रस्तुत प्रयास पाठकों की अभिरुचि का उपजीव्य बने, जिससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि भारतीय मनीषा से प्रसूत चिन्तन का अनुगमन पाश्चात्यों ने किया है।
****************************************
References
1
मराठी ज्ञान कोश-प्रस्तावना खण्ड, पृ० ५०६-५०७
2
डॉ० नारायण गोपाल डोंगरे, वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श: (१९९५)
3
वैशेषिक सूत्र १/१/४ (६०० ई. पू.)
4
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत़्र १/१/४ (६०० ई. पू.) "धर्मविशेषप्रसूताद्द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्माभ्यां तत्त्वज्ञानान्नि:श्रेयसम्।। "
5
महर्षि गौतम, न्याय सूत्र ;१/१/१द्ध (६०० ई. पू.), वात्सायन भाष्य-"इमास्तु चतस्रो विद्या: प्रथक्प्रस्थाना: प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकी न्यायविद्या। तस्या: पृथक्प्रस्थाना: संशयादय: पदार्था:। तेषां पृथग्वचनमन्तरेणाऽध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात्, यथोपनिषद:।।"
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार